चंदा इक ओर बैठा,
आकाश में ,
टुकुर- टुकुर निहारे धरती को प्रकाश से,
पर यह प्रकाश उसने उधार लिया है सूर्य से,
फिर भी देखे इक टक सम्पूर्ण धैर्य से।
गर्वान्वित हो सूर्य चमके,
ओर भी गर्माहट से ,
त्राहि - त्राहि करे धरती उसकी हर आहट पे,
द्वेष, क्रोध, जलन का परिवेश निराला है,
जिसने भी पिया उसका ह्रदय ज्वलनशील ज्वाला है ।
वहीँ चंदा की शीतलता,
अनोखी है , शांत है,
पृथवी उसकी ठंडक में नितांत हैं।
बने हम भी चाँद की ठंडक सा,
बहें मंद - मंद हवा की सुगंध सा ...................
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आभार है मेरा