आज श्वेत धुएँ में,
लिपटी हुई थी शाम।
न ही खुश,
न ही गमगीन थी शाम।
मैंने पूछा,
कि क्या हुआ ?
तो मुस्कुराकर,
आगे बढ़ गयी वही शाम।
शायद कुछ,
छुपा रही थी वह शाम,
या शायद,
एक खुली किताब सी कोरी थी वह शाम।
कुछ पाने,
और,
कुछ खोने की,
कश्मकश में,
ढल रही थी वह शाम।
जब भी पीछे मुड़ कर देखा,
याद आ रही थी वह शाम।
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आभार है मेरा