कण -कण छलकती मिट्टी माटी,
उड़ती बयार संग रेत मरुस्थल की,
आंधी तूफ़ान बहते पल - पल,
पिघलता मद्धम - मद्धम हिमनद,
और उफनता समुद्र थर - थर।
उड़ती बयार संग रेत मरुस्थल की,
आंधी तूफ़ान बहते पल - पल,
पिघलता मद्धम - मद्धम हिमनद,
और उफनता समुद्र थर - थर।
यह खनक जलवायु परिवर्तन से ,
ज्यों हलाहल छलके, बूँद बूँद बर्तन से।
हे! भोले अब ना आना,
इस हलाहल को न समाना,
मनुष्य को अब न बचाना,
भस्म हो जाने दो मनुष्य जाती को,
इस हलाहल की अग्नि में।
महादेव भी कितना हलाहल सम्हालेंगे? बहुत ही प्रबल भाव।
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