तुम्हारे पथ पर पड़ी ,
चरण-धुली हूँ ,
छू कर तुम्हें पवित्र हो गई हूँ।
फिर भी पूँछू खुद से ----- आखिर कौन हूँ मैं ?
जीवन के पन्नों पर लिखी एक कविता हूँ ,
जो ऐसी स्याही से लिखी गयी ,
कि कुछ बारिश की बूंदे बहा ले जाएं।
फिर सोचती हूँ ----- आखिर कौन हूँ मैं ?
कई जन्मों से तुम्हारे इंतज़ार में बैठी,
मन में स्नेह संजोये ,
अनगिनत ख्वाबों में खोये।
यही सोचूं ----- आखिर कौन हूँ मैं ?
कभी धारा समान प्रवाहित थी,
कोलाहल से सुसज्जित ,
वर्तमान में निर्जला ।
तो ----- आखिर कौन हूँ मैं ?
अनकहे गीत की तरह हवा में बहती हूँ ,
बरसों पहले जो हकीकत थी ,
अब भूली - बिसरी स्मृति हूँ।
आखिर कौन हूँ मैं ?
कविता ने मन को बाँध लिया .. क्या खूब लिखा है .. अंतिम पंक्तियों ने जादू कर दिया है ,,..
जवाब देंहटाएंRecent Post शब्दों की मुस्कराहट पर कुछ रिश्ते अनाम होते है :)