किंचित किंचित पंखुड़ियों पे,
एक अजब सी प्यास उठी ,
तुम्हारे प्यार कि कुछ बूंदों से,
जाने कब ये प्यास बुझी l
एक अजब सी प्यास उठी ,
तुम्हारे प्यार कि कुछ बूंदों से,
जाने कब ये प्यास बुझी l
पलक झपकते ही उड़ जाती ,
मंद - मंद पवन सी,
कभी यहाँ - वहाँ बलखाती,
ये पंखुड़ियाँ l
छूना चाहती है चाँद को,
उसकी ठंडी चाह को,
और कभी सूर्य कि ऊष्मा को ,
ज्वलनशील उसकी देह को l
किन्ही विचारों सी बस,
बिखरें इधर- उधर,
ये पंखुड़ियाँ l
समेटना चाहूं ,
तो भी न सिमटें ,
ये तो बस , उड़ना चाहती है,
चहुँ और,
ज्यों तिनके l
वाह . बहुत उम्दा
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