30 जून 2014

इन्सान

क्या  दौड़ना ही  इन्सान के  जीवन का  ध्येय है ?
इसी भागदौड़ में जीवन व्यय है। 

कभी सोचे कि रुके एक पल को,
लेकिन फिर देखे आँखों के समक्ष गुजरते  हुए अपने कल को। 

संघर्ष करे आखिर कब तक ?
शायद सपनों की उड़ान पूरी न हो जब  तक । 

हिम्मत क्षण - क्षण में जुटाये ,
दुःख हो या सुख ,फिर भी सुहाना राग गुनगुनाये। 

विपरीत परिस्थितियों में  मुस्कुराता है,
ह्रदय में बसे अपने भगवान को भी मानता है। 

छिन्न - भिन्न हो जाये यदि आत्मसम्मान,
तो उसे  फिर से शिखर तक  पहुंचाना जानता है। 



 भुजाओं में वज्र की  कठोरता ,
मन में स्नेह की कोमलता ,
कई विभिन्नताओं को समाये हुए है इंसान। 

पतझड़ में वसंत की उम्मीद,
सर्दियों में धूप  की  आस ,
ऐसी ही प्रेरणाओं  से  खुद को जगाये इंसान। 

हर विघ्न -  बाधा से लड़ता जाये ,
कभी न  थके ,
कभी न रुके ,
कभी न झुके,
जीवन पथ पर बढ़ता जाये इंसान। 






27 जून 2014

ये रात और चाँद क्या कहते हैं ?

रात कहती है...........


चाँद को रखा था मैंने आँचल में समां कर,
जाने क्यों निकल आया बाहर ?
उसकी शीतलता स्वयं पाना चाहती हूँ,
तारों पे सवार हो, कहीं दूर जाना है,
पर वह तो स्वछंद  है। 


                                               चकोरी भी टकटकी लगाये उसे देखे ,
                                               क्यों दूँ उसे मैं  अपना चाँद ?
                                               मेरे अंधेरे को टिमटिमाता है ,वही अपनी लौ  से। 


                                                                    कहा था मैंने चाँद से,
                                                                    बादलों की सैर करेंगे। 
                                                                    पर मेरी कहाँ सुनता है वह,
                                                                     एक ओट से झांकता रहता है छुप - छुप के। 



चाँद  कहता है.……....


                                                                मैं समस्त संसार का हूँ,
                                                                मुझे निहारे है जग सारा।

                                                                मैं तो सबका हूँ ,
                                                                न कि  बस तुम्हारा। 




20 जून 2014

चिर निद्रा

देख लिया है  संसार सारा ,
है इच्छाओं की, पूर्ण धारा। 

ज्यों जल को चाहे है मीन,
त्यों ही होना चाहूँ मैं चिर निद्रा  में विलीन। 

भटकता है इन्सान जन्मों के चक्र में,
कभी है कर्क , कभी है मकर में। 

तोड़ दूँ  यह बंधन मोह का,
करूँ अभिनन्दन मोक्ष का। 

दुःख, सुख, भय  भावनाओं से  छूट कर ,
विलुप्त हो जाऊं ब्रह्माण्ड संग। 

एक अणु की शक्ति बन,
समग्र अर्थ सींच लूँ ,


चिर निद्रा के गर्भ में स्वयं को मैं  खींच लूँ। 







13 जून 2014

जिंदगी

धूप में ,छाओं में,
दौड़ती है,
जिंदगी।

कभी खुशियों का  गुलदस्ता लिए ,
कभी ग़मों का पुलिंदा लिए,
भटकती है,
जिंदगी। 

प्यासी आँखें  पीती हैं पानी, 
आसुओं की बौछार से ,
कहीं पेट  की आग  बुझाती,
चंद बातें ,
बस ऐसे ही सरपट- सरपट चलती है,
जिंदगी। 

शिकायत करे या बढ़ती जाये, 
सोचती रहती है,
जिंदगी। 
यहीं खिलखिलाती,
और मिट जाती है ,
जिंदगी।


बारिश

आज बारिश भिगा के चली गयी,
भूल चुकी थी जिस एहसास को,
उसे फिर से जगा के चली गयी। 

बरसों से छिपे आसूं क्षण भर में छलक पड़े,
सूख चुके थे जो पहले,
उन्हें रुला के चली गयी। 

मन की चंचलता इक कोने में दबी थी कहीं,
लाख रोका था मैंने लेकिन,
उसे उफ़ना के चली  गयी।

यादों के बादल बरस गए कुछ ऐसे,
सहेज के रखे थे जो पल,
उन पलों को बिखरा के चली गयी। 

आज बारिश भिगा के चली गयी।