16 मार्च 2020

कैसे जानू तुम्हें?

कैसे जानू  तुम्हें?
जानकार भी अनजान लगती हूँ ,
कुछ कहना हो ,
तो ,
झिझक सी जाती हूँ ,
और ,
कभी कुछ कह दूँ ,
तो ,
शायद तुम्हारी वेदना को ,
झकझोर जाती हूँ मैं।


कैसे जानू तुम्हें ,
बस ,
यही सोच के कभी - कभी ,
घबरा सी जाती हूँ मैं।

वह शाम

आज श्वेत धुएँ में,
लिपटी हुई थी शाम। 
न ही खुश,
न ही गमगीन थी शाम। 

मैंने पूछा,
कि क्या हुआ ?
तो मुस्कुराकर,
आगे बढ़ गयी वही शाम। 

शायद कुछ,
छुपा रही थी वह शाम,
या शायद,
एक खुली किताब सी कोरी थी वह शाम। 

कुछ पाने,
और,
कुछ खोने की,
कश्मकश में,
ढल रही थी वह शाम। 

जब भी पीछे मुड़ कर देखा,
याद आ रही थी वह शाम।