08 दिसंबर 2020

अनगिनत दीप

 ना जाने तुम्हारे नाम के,

कितने दीपों को जलाए बैठी हूं जिंदगी के द्वारे,

यही दीप हैं, मेरे आगे बढ़ने के सहारे।

 

हर दीप में श्वांस,चाहे मेरा चहके,

परन्तु ,तुम्हारे ही नाम से,

यह अनगिनत दीप महकें


उम्मीद है कि, जीवनोपरांत भी,

इन दीपों की लौ प्रजवालित होगी,

जो रोशन करेगी मेरी राह तुम तक,

और तुम्हारी राह मुझ तक।

 

अनगिनत दीपों को संवारे,

तुम्हारा इंतज़ार है,

आज भी..................

02 दिसंबर 2020

विलय

प्रशांत महासागर की गहराईयों में, 
छुपे हुए अनमोल मोती से तुम,
शांत,अविचलित,मनोहर,
किन्तु गतिमान हरदम। 

धुंध से ढके हुए पर्वतों की चंचलता,
तुम्हारी हंसी का एक पहलु,
और न जाने क्या क्या मेरे मन में बसे,
तुम्हारे रूप हैं। 

तभी तो,
तुम मेरे स्वप्नों की रची हुई अनकही कहानी हो,
और शायद उन स्वप्नों का विलय भी। 

26 नवंबर 2020

क्यों गुमसुम है चाँद आज?

क्यों गुमसुम है चाँद आज?
क्या कोई बात है आज?


किसका इंतज़ार है इसे,
या 
कोई कर रहा चाँद का इंतजार?


सूनी - सूनी राहों पर चल रहा एकटक,
कोई साथी अगरआना चाहे, 
तो,
क्या आने देगा यह चाँद?


कुछ तो बात है आज,
जो गुमसुम है यह चाँद। 

04 अगस्त 2020

जय श्री राम


श्री राम आपका वनवास अब सम्पूर्ण हुआ ,

सदियों की हिन्दुतव की पीड़ा का अंत हुआ I

 

कैसा यह देश था,

जहां राम का जन्म हुआ,

पर राम को ही स्थान नहीँ I

 

लेकिन अब विज्यश्री प्राप्त हुई ,

और अयोध्या , श्री राम में व्याप्त हुई I

 

जब,जब रावण जागा है,

तब, तब धर्मयुध हुआ,

चाहे दीर्घ चला था,

परंतु अंत उसका शुभ हुआ I

 

श्री राम आपका वनवास अब सम्पूर्ण हुआ,

सदियों की हिन्दुतव की पीड़ा का अंत हुआ I


21 जून 2020

सौर्यमण्डल का आभूषण

सूर्य सृष्ष्टि का है आधार,
सर्वस्व जीवन पर है इसका आभार। 

सूर्य का सम्पूर्ण  प्रकाश, 
ज्यों हर प्राणी का श्वांस,
स्वचलित, स्वतंत्र , प्रगतिमान। 

सौर्यमण्डल का आभूषण,
अपनी आभा बिखेरता प्रतिक्षण,
जीवन ऊर्जा का स्त्रोत , हर कण -कण। 

नमन तुझे हे !,जीवन दाता,
इस संसार के तुम्हीं  हो विधाता।   
 



 

16 मार्च 2020

कैसे जानू तुम्हें?

कैसे जानू  तुम्हें?
जानकार भी अनजान लगती हूँ ,
कुछ कहना हो ,
तो ,
झिझक सी जाती हूँ ,
और ,
कभी कुछ कह दूँ ,
तो ,
शायद तुम्हारी वेदना को ,
झकझोर जाती हूँ मैं।


कैसे जानू तुम्हें ,
बस ,
यही सोच के कभी - कभी ,
घबरा सी जाती हूँ मैं।

वह शाम

आज श्वेत धुएँ में,
लिपटी हुई थी शाम। 
न ही खुश,
न ही गमगीन थी शाम। 

मैंने पूछा,
कि क्या हुआ ?
तो मुस्कुराकर,
आगे बढ़ गयी वही शाम। 

शायद कुछ,
छुपा रही थी वह शाम,
या शायद,
एक खुली किताब सी कोरी थी वह शाम। 

कुछ पाने,
और,
कुछ खोने की,
कश्मकश में,
ढल रही थी वह शाम। 

जब भी पीछे मुड़ कर देखा,
याद आ रही थी वह शाम।