29 दिसंबर 2014

कुछ याद आता है

जब भी इन गलियारों से गुजरती हूँ ,
कुछ याद आता है। 
वह बातें , वह रूठना - मानना ,
और फिर कुछ बना बहाना ,
तुम्हारा मुझे रिझाना। 


उस बागीचे के कोने को देख ,
कुछ याद आता है। 
फूल जैसे पूछ रहे हों तुम्हारा पता ,
तुम्हारी यादें ज्यूँ वृक्षों पर लिपटी लता ,
कहें मुझसे कुछ तो हमें बता। 


मधुर गीत कोई गुनगुनाये ,
कुछ याद आता है। 
तुम्हारे शब्दों की लड़ी ,
वक्त की रुकती-थमती घड़ी ,
जिसकी तुमसे जुड़ी है कड़ी। 


देखूं जब बादलों को उड़ते ,
कुछ याद आता है। 
तुम्हारा दर्द और कराहना ,
कभी रोना और चहचहाना ,
उम्मीद है स्मरण रखोगे बिताये पल, जब भी तुम इस और आना। 


यूँ ही बस कुछ याद आता  है........................... 

23 दिसंबर 2014

अनोखी दुनिया

 कहीं किसी ब्रह्माण्ड में ,
आकाशगंगा से परे ,
अंतरिक्ष की सीमाओं से दूर,
एक अनोखी दुनिया है जरूर। 

वह दुनिया निराली है ,
चारों तरफ प्रकृति की हरियाली है। 
जहाँ सब जन रहें सौहार्द से ,
बिना किसी स्वार्थ के। 

दया , भावना , प्रेम परिपूर्ण है ,
मन में शांति व सुकून है। 
जीव, जंतु ,मनुष्य , प्राणी,
सब की है मधुर वाणी। 

क्रोध, पाप , भेदभाव ,
नहीं है इस दुनिया के संताप। 
प्यारा , अदभुत यह संसार,
है कहीं अवश्य ,
इतना तो है मन में विश्वास। 

10 दिसंबर 2014

समय की परिधि

समय - समय की बात है ,
जीवन कभी दिन ,तो कभी रात है।

कुछ उम्मीदें , क्षण ख़्वाब,
जो थे मात्र अवसाद ,
आज उफन रहें हैं ज्यों प्रभात।

समय का ही चक्र है,
कल जिस की चाह थी,
छिप गयी थी जो वेदना , पीले पत्तों में ,
वर्तमान में फूट रहें हैं नव पल्लव बन। 

अब यह पल्लव अंकुरित होंगे अवश्य,
मिलेगी उन्हें स्नेह की वर्षा, भावनाओं की खाद,
लेकिन उनमें रहेगा एक कड़वा - मीठा स्वाद। 

समय का चक्र बढ़ रहा है ,
सूर्य भांति चढ़ रहा है। 

परन्तु , अंतर है संवेदनाओ का। 



08 दिसंबर 2014

महासागर

माप न सके जिसे कोई गहराई ,
असंख्य मोती , ख़ज़ाने , शौहरत है इसमें समाये। 

जग छुपाये भीतर फिर भी एकांत,
मन निश्पाप, निश्छल , प्रशांत। 

मयंक को छुए ऊँची लहरें। 
लगा न सके कोई पहरे। 

सदियों से लहराता इस घूमती धरा पर ,
अपने नैसर्गिक सौंदर्य से सब का मन हर। 

सभी नदियों के समर्पण की आस,
लेकिंन कोई बुझा न पाये महासागर की प्यास। 





04 दिसंबर 2014

यह दुनिया

दुनिया में रह  कर भी ,
दुनिया की तरह जीने का सलीका न आया ,
किस तरह चालाक बने , यह तरीका न आया। 

स्वच्छ छवि , स्वच्छ मन , परे सब प्रपंचों से,
क्यों  हो जाती है घायल, दुनिया के व्यंगयों से ?

कहते हैं भलाई कभी नहीं हारती ,
लेकिन यहाँ सबसे अधिक इंसान को यही है मारती। 

बुराई पनप रही चहुँ ओर ,
सच्चाई की है एक कमज़ोर डोर। 

हर जगह  "मैं " व्याप्त है,
कोई अगर बढ़ना भी चाहे ,उस पर "मैं " का अभिशाप है। 

 सभी तरफ द्वेष है ,
चेहरों पर मुखोटा और तन पर झूठा वेष है। 

इच्छाओं का सागर सूख  चुका है ,
भावनाओं का बवंडर थम  चुका है। 

भुला कर सब  कुछ हे ! ईश्वर ,
समां ले मुझे अपने सर्वस्व ,
और मोक्ष की और अग्रसर कर। 


30 नवंबर 2014

बांवरा मन

लहराती चली है पवन ,
कुछ कह रही है तुझसे यह  मेरे मन,
वह जिसके स्वपन संजोये तूने ,
अब बिफरे - बिफरे पड़े है सूने - सूने

गाता - बहता पानी ,
सुना रहा है उसकी कहानी,
जिस संग डोर बंधी है मन की ,
पर जीवन में है उसी की कमी।

सप्त रंगी धनुष यह ,
जोड़े धरती- आकाश की लय ,
जा उसके साथ तू मन ,
शायद उस ओर  मिले उसका दर्पण।

मन तो बांवरा है ,
विचरे भंवरा बन,
उसकी चाह रखता है ,
जो खो चुका है........................
          इक दर्द बन.…………….......

28 नवंबर 2014

आज भी............

आज भी.……

तुम्हारा चेहरा ,
खिलखिलाता सा,
चहकता सा,
मेरे नयनों में बसा है। 

वह तुम्हारी बातें ,
जो कभी हंसाती ,
कभी रुलाती ,
मेरे कर्णों में गूंजती हैं। 

तुम्हारे स्पर्श के ,
एहसास की ,
भीनी - भीनी खुशबू ,
मेरे मन को महकाती है। 

स्मृतियों की वर्षा ,
पूर्णतयः सरोबार कर, 
तुम्हारी याद दिलाती है। 

स्वपन है , यह तो केवल,
परन्तु सच होने की उम्मीद में ,



आज भी……

मेरे हृदय में तुम्हारी छवि समाई हुई है। 

12 अक्तूबर 2014

मैं क्या चाहती हूँ

हूँ तो तुम्हारी भक्तिन, 
पर  तुम्हारी शक्ति बनना चाहती हूँ।  

हूँ तो तुम्हारी चरण धुलि , 
पर तुम्हें माथे लगाना चाहती हूँ।  

हूँ तो मुरझाई कली  सी,
पर  फूल बन तुम्हारी राहों में बिखरना चाहती हूँ। 

हूँ तो ओंस की बूँद भर , 
पर सावन बन तुम पर बरसना चाहती हूँ।  

हूँ तो  कागज का  टुकड़ा बस,
पर  तुम्हारी कहानी लिखना  चाहती हूँ।  

यूँ तो कोई अस्तित्व नहीं है मेरा ,
पर तुझ में समाना चाहती हूँ ,

बिखरा बिखरा सा यह जीवन है ,
तुम को खुद में समेटना चाहती हूँ। 

बंधी है डोर किसी ओर संग, 
पर तुम्हें अपना सर्वस्व समर्पण करना चाहती हूँ। 





22 सितंबर 2014

टूटे ख्वाब

टूटे - टूटे ख्वाबों के  ,
टुकड़े यहाँ- वहाँ हैं बिखरे हुए ,
इस आशा में पड़े हैं कि ,
कभी कोई उन्हें छुये। 

राहगीर की नज़र पड़ी  जब ,
उठाये उसने चंद टुकड़े,
बाकी रह गए यूँही बस ,
कुछ सिमटे , कुछ उखड़े - उखड़े। 


अनेक उड़ गए पवन संग ,
और जो बच गए पीछे ,
आँख मूँद सो गए ,
कभी कोई गुजरे वहां से तो शायद उन्हें वह सींचे। 

सब को सब कुछ कहाँ मिला है ,
जीवन तो  बस धोखा है ,
जीना है हर हाल में इसको ,
वैसे तो सब खाली है ,खोखला है। 




16 सितंबर 2014

शिव स्वरुप

कण - कण में हैं शिव का वास ,
उन्हीं का नाम है हर प्राण ,हर शंवास। 

सूर्य की पहली  किरण समान ,
सबको देते वह वरदान। 

दोपहर की ऊष्मा ,
उन्हीं की है दक्षता। 

संध्या का लाल रंग ,
गाये शिव के ही प्रसंग। 

रात्रि की कालिमा,
शिव के प्रकाश से श्वेत वस्त्र धरा करे। 

शिव की  ही वंदना, गूंजे चहुँ तरफ ,
जैसे कैलाश को सुसज्जित करे बरफ। 

शिव नाम अखंड है ,
तांडव करें जब , तब धरा खंड- खंड है। 

शिव को तुम सिमर लो ,
स्वयं में तुम ढाल लो। 

शिव स्वरुप पूर्ण पावन ,
भिगोये जग को बन सावन। 

12 सितंबर 2014

कौन हूँ मैं ?

तुम्हारे पथ पर पड़ी ,
चरण-धुली हूँ ,
छू कर तुम्हें पवित्र हो गई हूँ। 

फिर भी पूँछू खुद से ----- आखिर कौन हूँ मैं ?

जीवन के पन्नों पर लिखी एक कविता हूँ ,
जो ऐसी स्याही से लिखी गयी ,
कि कुछ बारिश की बूंदे बहा ले जाएं। 

फिर सोचती हूँ  ----- आखिर कौन हूँ मैं ?

कई जन्मों से तुम्हारे इंतज़ार में बैठी,
मन में स्नेह संजोये , 
अनगिनत ख्वाबों में खोये। 
यही सोचूं ----- आखिर कौन हूँ मैं ?

कभी धारा समान  प्रवाहित थी,
कोलाहल से सुसज्जित ,
वर्तमान  में  निर्जला  । 
तो ----- आखिर कौन हूँ मैं ?
   
अनकहे गीत की तरह हवा में बहती हूँ ,
बरसों पहले जो हकीकत थी ,
अब भूली - बिसरी स्मृति हूँ। 

आखिर कौन हूँ मैं ?



25 अगस्त 2014

अनकहे शब्द


धुआं - धुआं सा मौसम है,
छुई - मुई  सी रात है ,
उसके आँचल में समाई हर बात है। 

ओंस के मोती ,
खिले हैं  हर  डाल  पर,
बिना वजह हँसते ,
मेरे हर  सवाल पर। 

राह की ख़ामोशी,
कहे कुछ कानों में,
कई  भावनाओं की लड़ियाँ बह उठे तूफानों में,
जा पहुंचे कहीं  दूर दुनिया के वीरानों  में। 

इन्हीं वीरानों में ,
खोये हुए हैं --- अनकहे शब्द।