09 अगस्त 2021

हे! भोले अब ना आना

कण -कण छलकती मिट्टी माटी,
उड़ती बयार संग रेत मरुस्थल की,
आंधी तूफ़ान बहते पल - पल,
पिघलता मद्धम - मद्धम हिमनद,
और उफनता समुद्र थर - थर।

यह खनक जलवायु परिवर्तन से ,
ज्यों हलाहल छलके, बूँद बूँद बर्तन से।

हे! भोले अब ना आना,
इस हलाहल को न समाना,
मनुष्य को अब न बचाना,
भस्म हो जाने दो मनुष्य जाती को,
इस  हलाहल की अग्नि में।  

1 टिप्पणी:

आभार है मेरा