माप न सके जिसे कोई गहराई ,
असंख्य मोती , ख़ज़ाने , शौहरत है इसमें समाये।
जग छुपाये भीतर फिर भी एकांत,
मन निश्पाप, निश्छल , प्रशांत।
मयंक को छुए ऊँची लहरें।
लगा न सके कोई पहरे।
सदियों से लहराता इस घूमती धरा पर ,
अपने नैसर्गिक सौंदर्य से सब का मन हर।
सभी नदियों के समर्पण की आस,
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आभार है मेरा