08 दिसंबर 2014

महासागर

माप न सके जिसे कोई गहराई ,
असंख्य मोती , ख़ज़ाने , शौहरत है इसमें समाये। 

जग छुपाये भीतर फिर भी एकांत,
मन निश्पाप, निश्छल , प्रशांत। 

मयंक को छुए ऊँची लहरें। 
लगा न सके कोई पहरे। 

सदियों से लहराता इस घूमती धरा पर ,
अपने नैसर्गिक सौंदर्य से सब का मन हर। 

सभी नदियों के समर्पण की आस,
लेकिंन कोई बुझा न पाये महासागर की प्यास। 





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आभार है मेरा