दुनिया में रह कर भी ,
दुनिया की तरह जीने का सलीका न आया ,
किस तरह चालाक बने , यह तरीका न आया।
स्वच्छ छवि , स्वच्छ मन , परे सब प्रपंचों से,
क्यों हो जाती है घायल, दुनिया के व्यंगयों से ?
कहते हैं भलाई कभी नहीं हारती ,
लेकिन यहाँ सबसे अधिक इंसान को यही है मारती।
बुराई पनप रही चहुँ ओर ,
सच्चाई की है एक कमज़ोर डोर।
हर जगह "मैं " व्याप्त है,
कोई अगर बढ़ना भी चाहे ,उस पर "मैं " का अभिशाप है।
सभी तरफ द्वेष है ,
चेहरों पर मुखोटा और तन पर झूठा वेष है।
इच्छाओं का सागर सूख चुका है ,
भावनाओं का बवंडर थम चुका है।
भुला कर सब कुछ हे ! ईश्वर ,
समां ले मुझे अपने सर्वस्व ,
और मोक्ष की और अग्रसर कर।
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आभार है मेरा