04 दिसंबर 2014

यह दुनिया

दुनिया में रह  कर भी ,
दुनिया की तरह जीने का सलीका न आया ,
किस तरह चालाक बने , यह तरीका न आया। 

स्वच्छ छवि , स्वच्छ मन , परे सब प्रपंचों से,
क्यों  हो जाती है घायल, दुनिया के व्यंगयों से ?

कहते हैं भलाई कभी नहीं हारती ,
लेकिन यहाँ सबसे अधिक इंसान को यही है मारती। 

बुराई पनप रही चहुँ ओर ,
सच्चाई की है एक कमज़ोर डोर। 

हर जगह  "मैं " व्याप्त है,
कोई अगर बढ़ना भी चाहे ,उस पर "मैं " का अभिशाप है। 

 सभी तरफ द्वेष है ,
चेहरों पर मुखोटा और तन पर झूठा वेष है। 

इच्छाओं का सागर सूख  चुका है ,
भावनाओं का बवंडर थम  चुका है। 

भुला कर सब  कुछ हे ! ईश्वर ,
समां ले मुझे अपने सर्वस्व ,
और मोक्ष की और अग्रसर कर। 


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आभार है मेरा